आत्म-बोध के 54th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञान में पूरे दिल से निष्ठ होकर उसी में रमने के लिए ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। ये श्लोक उनके लिए भी हो सकते हैं जो अभी पूरे दिल से ब्रह्म-ज्ञान के लिए समर्पित नहीं हुए हैं और अभी भी बहिर्मुख हैं, अर्थात किसी न किसी दुनिया की वस्तुओं से तृप्त होना चाहते हैं। वे कहते हैं की उसे ब्रह्म जानो जिसके 'लाभ' के बाद अन्य कोई लाभ की प्राप्ति शेष नहीं बचती है। जिसके सुख के बाद अन्य कोई सुख की प्राप्ति की संभावना शेष नहीं होती है। और तीसरी बात कहते हैं जिसके ज्ञान के बाद दूसरा कोई ज्ञान का विषय ही नहीं होता है।
इस पाठ के प्रश्न :
- १. इस श्लोक का अधिकारी कौन है ?
- २. अपने दिल को पूर्ण रूप से ब्रह्म में लगाने के लिए क्या करना चाहिए ?
- ३. सबसे बड़ा लाभ जीवन में कौन सा होगा ?
Send your answers to : vmol.courses-at-gmail-dot-com