आत्म-बोध के 55th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञान में पूरे दिल से निष्ठ होकर उसी में रमने के लिए ब्रह्म की कुछ और महिमा बता रहे हैं। पू गुरूजी यहाँ पर बताते हैं की प्रत्येक मनुष्य में एक दिमाग और एक दिल होता है। वेदान्त में पहले दिमाग को प्रबुद्ध किया जाता है और फिर अपनी ही बुद्धि से अपने ही दिल में ज्ञान उतारा जाता है। यह पढ़ाओ सबसे महत्वपूर्ण होता है और इसके बाद ही ज्ञान में निष्ठा होती है, और मुक्ति केवल ज्ञान में निष्ठा के बाद ही होती है। तो यहाँ इस श्लोक में आचार्य कहते हैं की अपनी ही बुद्धि से अपने दिल को बताना चाहिए की हे मन ब्रह्म वो होता है जो सबसे दर्शनीय है, जिसको देखने के बाद फिर कुछ दर्शन योग्य नहीं बचता है। यह वो है जो हो जाने के बाद अन्य कुछ बनाने की संभावना नहीं रहती है और जिसको जानने के बाद अन्य कोई ज्ञेय वस्तु नहीं रहती है।
इस पाठ के प्रश्न :
- १. ब्रह्म की महिमा का गुणगान का क्या प्रयोजन है ?
- २. जब हमलोग किसी दर्शनीय वस्तु का दर्शन करते हैं तो उसके मूल रूप से क्या प्रेरणा होती है ?
- ३. ब्रह्म को सर्वोत्कृष्ट ज्ञेय वस्तु क्यों कहा गया है ?
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