आत्म-बोध के 58th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। अपने मन को भी ब्रह्म में निष्ठ करने के लिए वे चर्चा कर रहे हैं - आनन्द की। हम लोगों की बुद्धि में ब्रह्म-ज्ञान की स्पष्टता होनी चाहिए, और मन में ब्रह्म-ज्ञान हेतु निष्ठा। हम सबका मन, भले वो छोटा व्यक्ति हो या बड़ा, पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, देसी हो या विदेशी, संसारी हो या साधक - सब के सब केवल अपनी-अपनी धारणाओं के अनुरूप आनन्द की प्राप्ति की चेष्टाओं में लगे हुए हैं। और हम सबके प्रयासों से हमें मात्र एक क्षण का आनन्द मिलता है, और उसी में अपने आप को धन्य समझते हैं। यहाँ आचार्य कहते हैं की अपने मन को समझाओ की ' हे मन, जब ज्ञानीजनों के द्वारा बताया गया तुम्हारे लिए आनंद का सागर हो जाने का विकल्प उपलब्ध है, तो तुम अज्ञानियों के पथ पर चलते हुए एक क्षण मात्र के लिए आनंद की एक बून्द क्यों प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे हो। विवेकी बनो, और अपनी सोच ऊंची करो। सीधे ब्रह्म-ज्ञान का संकल्प करो। वो तो अत्यंत निकट भी है - वो तो हमारी आत्मा ही है। बस अपने को यथावत जानने के लिए समर्पित हो जाओ। हमारी बुद्धि ने तो वो जान भी लिया है, अब मात्र अपनी बुद्धि के द्वारा बताये मार्ग पर चलो।
इस पाठ के प्रश्न :
- १. प्रत्येक मनुष्य जीवन में अंततः क्या प्राप्त करना चाहता है ?
- २. विषयानन्द क्षणिक क्यों होता है ?
- ३. अखण्डानन्द की प्राप्ति का क्या आशय होता है ?
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