आत्म-बोध के 62nd श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की प्रकाश स्वरूपता की विलक्षणता दिखा रहे हैं। ब्रह्म की प्रकाशरूपता दिखने के लिए कई बार सूर्य के दृष्टांत का प्रयोग किया जाता है। इस दृष्टांत में प्रकाश-रूपता की तो साम्यता है, लेकिन एक समस्या भी होती है, और वो है सूर्य जैसे एकदेशीय होने की संभावना। समस्त लौकिक प्रकाश एकदेशीय होते हैं, और यह साम्यता हमें इष्ट नहीं है। ब्रह्म सर्वव्यापी हैं अतः इस श्लोक में कहते हैं की ब्रह्म खुद सब चीज़ों के अंदर और बहार व्याप्त रहते हुए सबको प्रकाशित करता है। इसके लिए आचार्य एक दूसरा दृष्टांत देते हैं - जैसे एक लोहे का टुकड़ा लेलें, उसे जब हम अग्नि में डालते हैं तो अग्नि उसके अंदर और बाहर व्याप्त हो जाती है, और उसके अंदर-बाहर रहते हुए उसे प्रकाशित करती है। उसी तरह से सात-चित-आनंद स्वरुप ब्रह्म सबके अंदर और बाहर विराजमान रहते हुए सबको प्रकाशित करता है।
इस पाठ के प्रश्न :
- १. ब्रह्म की प्रकाश-स्वरूपता दिखाने के लिए सूर्य के दृष्टांत में क्या अच्छाई, और क्या कमी है?
- २. ब्रह्म सबके अंदर और बाहर किस रूप में विराजमान होता है ?
- ३. सर्व-व्यापी प्रकाशक का कोई दृष्टांत बताए ?
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