आत्म-बोध के 65th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञानी की दृष्टी के बारे में बताते हैं। जो तत्त्व के अज्ञानी होते हैं, वे दुनियां को सतही दृष्टि से ही देखते हैं इसलिये उतने मात्र को ही सत्य मानते हैं। विविध रूप और उनके नाम, हो हमारे शरीर से किसी भी तरह से जुड़े हुए हैं वे ही अपने समझे जाते हैं, अन्य सब पराये होते हैं। ऐसे लोगों की दृष्टी संकुचित होती है और वे जीवन भर छोटे एवं असुरक्षित रहते हैं। ऐसे लोग ही दुनियां में समस्त हिंसा एवं पीड़ा के कारण होते हैं। इनसे विपरीत ब्रह्म-ज्ञानी वे होते हैं जिनकी ज्ञान-चक्षु खुल गयी है। उन्हें अपनी एवं अन्य सबकी आत्मा दिख रही है - जो की सत-चित स्वरुप है, और यह ही हम हैं। हम ही विविध रूप में अभिव्यक्त हैं। हम पूर्ण हैं, सर्व-व्यापी हैं, हम ही एक, अखंड ब्रह्म हैं।
इस पाठ के प्रश्न :
- १. अज्ञान-चक्षु किसको बोलते हैं ?
- २. ज्ञान-चक्षु किसको बोलते हैं ?
- ३. ज्ञान-चक्षु जब खुल जाते हैं तो दुनिया कैसी दिखाई पड़ती है ?
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