आत्म-बोध के 66th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें अपने ब्रह्म-ज्ञान हेतु पूरी यात्रा का सारांश बता रहे हैं। वे कहते हैं की याद करो की यह तुम्हारी आध्यात्मिक यात्रा कहाँ से प्रारम्भ हुई थी। हम सब के अंदर एक अपूर्णता थी, असुरक्षा थी, जिसकी निवृत्ति के लिए अनेकानेक आकांक्षाएं थी। इन कामनाओं के कारण अनेकों आसक्तियां, राग और द्वेष उत्पन्न हो जाते हैं। इनके फलस्वरूप हम लोग और पराधीन हो जाते हैं। इस तरह से अनेकों प्रकार के मल जमा हो जाते हैं। इनसे मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति होती है। इसी लक्ष्य को ध्यान रखते हुए हमारे गुरु हमें जीवन के यथार्थ का ज्ञान देते हैं। श्रवण, मनन और निदिध्यासन से ही ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान अग्नि की तरह होता है - जो समस्त अज्ञान और उसके कार्य को भस्मीभूत कर देता है। और एक जीव अपने जीवत्व से मुक्त होकर स्वर्ण-तुल्य साक्षात् ब्रह्म होकर स्थित हो जाता है।
इस पाठ के प्रश्न :
- १. हमारे अंदर कौन से मलिनताएँ होती हैं ?
- २. कर्म के समस्त प्रेरणाओं से मुक्त होना क्यों आवश्यक होता है ?
- ३. श्रवण, मनन और निदिध्यासन से क्या होता है ?
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