उपदेश सार के ९वें प्रवचन में पू स्वामी आत्मानन्द जी ने बताया की एक-चंतन रुपी साधना के लिए महर्षि कहते हैं जब तक दूसरे का अस्तिव्त है तब तक ही मन कहीं भटकेगा लेकिन जब अन्य मिथ्या हो जाता है और आत्मा ही सत्य जान ली जाती है तब मन कहाँ जायेगा? इसके लिए वे केहते हैं की अपने मन में जो कोई भी विचार हैं उन्हें दृश्यवारित अर्थात दृश्य से रहित कर देना चाहिए। तब हमें चित्त का तत्त्व जिसे चित्व कहते हैं वो दिखेगा। चित्व ही तत्त्व होता है। जिसने तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर लिया उसका मन भटकना बंद हो जाता है। इसके लिए वे कहते हैं की हमें अपने मन पर विचार करना चाहिए - मानसं तु किम - हे मन तू क्या है? इस विचार की प्रक्रिया को वे आगे बताते हैं।