

उपदेश सार के अंतिम, ११वें प्रवचन में पूज्यपाद श्री स्वामी आत्मानन्द जी महाराज बताते हैं की पूर्व के श्लोक में आत्मा-चिंतन का महादेव ने तरीका बताया अब इसका एक और सरल उपाय बताते हैं। यह है - पांचकोश विवेक। साधक को एक एक करके उपाधियों में अपनी एटीएम बुद्धि को समाप्त करना चाइये तब ही आत्म-ज्ञान में स्थिरता होती है। विपरीत ज्ञान ही ज्ञान में निष्ठां के बाधक होते हैं। अंतिम प्रवचन में आत्मा-ज्ञान के लक्षण, मुक्ति का स्वरुप और वास्तविक तपस्या का स्वरुप सब बताते हैं।


उपदेश सार के १०वें प्रवचन में पूज्य गुरूजी श्री स्वामी आत्मानन्द जी महाराज बताते हैं की अपने मन पर विचार करने के लिए एक सरल उपाय होता है। वे बताते हैं की मन वृत्तियों का प्रवाह होता है। हमारे मन में प्रत्येक वृत्ति किसी न किसी विषय की तरफ हमारा ध्यान मोड़ती है। अतः मोटे तौर से इन सब वृत्तियों को 'इदं वृत्ति" कहा जाता है। यद्यपि ज्यादातर वृत्तियाँ इदं वरीतियाँ हैं लेकिन सब नहीं। सबके मन में एक और विलक्षण वृत्ति होती है, और वो है "अहम् वृत्ति"। इस अहम् वृत्ति के ऊपर ही समस्त इदं वृत्तियाँ आश्रित होती हैं। इसीलिए इस "अहम् वृत्ति" को विद्वान लोग वास्तविक मन कहते हैं। अब मन के ऊपर विचार आसान हो गया, अब हमें केवल एक वृत्ति के ऊपर ही विचार करना है। अहम् वृत्ति कहते हैं अपने मन में अपने आप की धारणा को। जब इसके ऊपर विचार होता है तब एक आश्चर्यजनक चीज़ होती है - यह अहम् वृत्ति गिर जाती है, अर्थात इसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व दिखाई नहीं देता है। जिसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व हो वो ही टिकती है। जिस जगह अहम् वृत्ति थी वहां ही एक परम पूर्ण सत्ता शेष रह जाती है। वो ही वस्तुतः हम होते हैं।


उपदेश सार के ९वें प्रवचन में पू स्वामी आत्मानन्द जी ने बताया की एक-चंतन रुपी साधना के लिए महर्षि कहते हैं जब तक दूसरे का अस्तिव्त है तब तक ही मन कहीं भटकेगा लेकिन जब अन्य मिथ्या हो जाता है और आत्मा ही सत्य जान ली जाती है तब मन कहाँ जायेगा? इसके लिए वे केहते हैं की अपने मन में जो कोई भी विचार हैं उन्हें दृश्यवारित अर्थात दृश्य से रहित कर देना चाहिए। तब हमें चित्त का तत्त्व जिसे चित्व कहते हैं वो दिखेगा। चित्व ही तत्त्व होता है। जिसने तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर लिया उसका मन भटकना बंद हो जाता है। इसके लिए वे कहते हैं की हमें अपने मन पर विचार करना चाहिए - मानसं तु किम - हे मन तू क्या है? इस विचार की प्रक्रिया को वे आगे बताते हैं।


उपदेश सार के ८वें प्रवचन में पू स्वामी आत्मानन्द जी ने बताया की जब किसी पुण्यात्मा ने अपने जीवन में भक्ति का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया तो निश्चित रूप से उसका मन शान्त और सात्त्विक हो जाता है, लेकिन जब तक ईश्वर के चरणों में अनुराग प्राप्त नहीं होता है, तब तक मन इधर-उधर भटकता है। कई बार आँधियों और तूफ़ान आते हैं, ऐसे मन को कैसे निग्रहीत करा जाये। इसके लिए भगवान् यहाँ मन को शीघ्र शांत करने की एक विद्या देते हैं। वह है प्राणायाम। उसमे भी विशेष रूप से बाह्य कुम्भक। जब साँस बहार निकल कर थोड़ी देर रुका जाता है तो चुटकी में सब विचार रुक जाते हैं, और मन का लय हो जाता है। लेकिन यह क्षणिक होता है लेकिन मनुष्य को इसका लाभ अवश्य लेना चाहिए। हाँ अगर किसी को यह जिज्ञासा हो की मन के प्रवाह को स्वाभाविक रूप से शान्त कैसे किया जाये तो वे कहते हैं की इसकी भी साधना होती है। और वो है - एक का चिंतन और ज्ञान। इससे मनोनाश प्राप्त हो जाता है। लय और मनोनाश दोनों में वृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं।


उपदेश सार के सातवें प्रवचन में पू स्वामी आत्मानन्द जी ग्रन्थ के ८वें से लेकर १०वें श्लोक पर चर्चा करते हैं। भक्ति की साधना मोठे तौर से दो भागों में विभाजित होती है। एक में भगवान् अभी भक्त से अलग होते हैं, वे हम से अलग किसी लोक में रहते हैं, तथा बाद में कुछ लोग भगवन को अपने ह्रदय में अंतर्यामी की तरह से जानते हैं। ऐसे भक्त कभी अपने को भगवान् का अंश देखते हैं और कभी तो पूर्ण एकता भी देखते हैं। इन दोनों का क्रम से महत्त्व होता है। इन दोनों का महत्त्व पूज्य स्वामीजी महाराज से समझाया। प्रारम्भ में भेद-भावना से भजन करना न केवल स्वाभाविक होता है बल्कि इसके अनेकानेक लाभ भी होते हैं। जिसमे भेद भावना होती है वे ही ईश्वर के गुण आदि ठीक से समझने की कोशिश करते हैं, अन्यथा उनका ध्यान अपने आप से हटता ही नहीं है। जब ईश्वर के ईश्वरत्व का परिचय हो जाए तभी उनसे एकता उचित और कल्याणकारी होती है। इसके अलावा पूज्य गुरूजी ने बताया की भक्ति, कर्म, ज्ञान आदि सभी योगों का पर्यवसान तब होता है जब हमारा मन अपनी सात स्वरुप आत्मा में होने लगता है। निर्मल और शुद्ध कहलाता है। ऐसे लोगो का मन स्वाभाविक रूप से शान्त और विचारशील हो जाता है।


उपदेश सार के छठे प्रवचन में पू स्वामी आत्मानन्द जी ग्रन्थ के ५वें से लेकर ७वें श्लोक पर प्रकाश डालते हैं। ये तीनों श्लोक पिछले श्लोक में बताई गयी तीनों साधनाओं का स्वरुप दिखाते हैं। अर्थात, पूजा क्या होती है, जप क्या है और कैसे होता है और ध्यान किसे कहते हैं।


उपदेश सार के पांचवे प्रवचन में ग्रन्थ के चौथे श्लोक पर प्रकाश डालते हुए पूज्य स्वामी जी ने बताया कि इस श्लोक से भगवान् हमें ईश्वर भक्ति की प्राप्ति के साधन बता रहे हैं। हमारी तीन धरातल की चर्चा करते हुए वे कहते हैं की एक हमारा शारीरिक धरातल होता है, एक इन्द्रिय, और विशेष रूप से वाणी का और तीसरा अत्यंत महत्वपूर्ण हमारे मन का धरातल होता है। हमें अपनी "आसक्ति से भक्ति" की प्राप्ति की यात्रा के लिए तीनों धरातल का सदुपयोग करना चाहिए। वे हमारे शरीर, वाणी और मन की तीन सर्वोत्कृष्ट साधनाएं बताते हैं - जो हैं, पूजा, जप और ध्यान। इनके अभ्यास से हमारे मन में निश्चित रूप से ईश्वर की भक्ति की प्राप्ति हो जाती है।


उपदेश सार के चौथे प्रवचन में ग्रन्थ के तीसरे श्लोक पर प्रकाश डालते हुए पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज ने बताया कि पिछले श्लोक में महादेवजी ने बताया की कर्म कब मन रुपी मुकुर (शीशे) करने वाला बन जाता है, और अब इस श्लोक में वे बताते हैं की कर्म कब बंधनकारी बन जाता है। जिसकी प्राथमिकताएँ लौकिक वस्तुओं की होती हैं वे लोग ही बाहरी घटनाओं से प्रभावित होते हैं। ऐसे लोगों ने जीवन के मूल लक्ष्य के बारे में गहराई से विवेक नहीं करा है, इसीलिए अनेकानेक लौकिक उपलधयों के बाद भी खाली हाथ रहते हैं। इसलिए यह कर्म का अंदाज़ बंधनकारी होता है।


उपदेश सार के तीसरे प्रवचन में ग्रन्थ के दूसरे श्लोक पर प्रकाश डालते हुए पूज्यपाद श्री स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने बताया कि कर्म अत्यंत समर्थ होता है। अनेकानेक लौकिक आवश्यकताएं कर्म से ही प्राप्त हो सकती हैं, इसलिए कर्म अवश्य करना चाहिए। कर्म केवल अपनी लौकिक जरूरतों के लिए नहीं होता है, लेकिन एक कर्म का अत्यंत महान और दिव्य सामर्थ्य के लिए भी होता है, जिसे विरले लोग ही जानते हैं। यह सामर्थ्य होता है - अपने मन को शान्त, सुन्दर, निर्मल और बुद्धिमान बना देने का। यह तो सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। इसलिए कर्म ऐसे ही लक्ष्य को रख कर किसी भी क्षेत्र में काम अवश्य करना चाहिए। कर्म हमें बांध भी सकता है और मुक्ति के लिए पात्र भी बना सकता है। वो बांधता तभी है जब लक्ष्य किसी नश्वर और लौकिक वस्तुओं के होते हैं। और यह ही कर्म जब ईश्वर के निमित्त बनकर उनकी ही प्रसन्नता के लिए करा जाता है - तब कर्म हमें समत्व से युक्त कर देता है और शनै-शनै मन शांत और सात्त्विक होने लगता है, अर्थात मुक्ति के लिए, आत्मा-ज्ञान के लिए पात्र बनने लगता है।


उपदेश सार पर अपने दूसरे प्रवचन में उपदेश सार के पहले ष्लोक पर प्रकाश डालते हुए पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने बताया कि भगवान शंकर अपने प्रिय कर्मनिष्ठ एवं तपस्वी भक्तों को एक मोक्षदायी उपदेश देने के लिए भूमिका बनाते हैं और पहले श्लोक में कुछ महत्वपूर्ण बातें बताते हैं। पहली चीज़ वे कहते हैं की : १. कर्म सदैव अपने स्पष्ट संकल्प से प्रारम्भ करना होता है, लेकिन कर्म-फल सदैव ईश्वर की इच्छा से प्राप्त होता है। २. हम कर्म से कुछ भी प्राप्त कर ले, वे सब फल यद्यपि उपयोगी होते हैं लेकिन वे सदैव क्षणिक होते हैं, लेकिन हम सब किसी स्थायी सुख को ढूंढते हैं - उसे शिवजी 'परम' के नाम से संकेत करते हैं। ३. कर्म-फल क्षणिक होते हैं और साथ-साथ जड़ भी होते हैं।


उपदेश सार ग्रन्थ पर प्रवचन श्रृंखला का शुभारम्भ करते हुए पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने इसकी भूमिका बताई। शिव पुराण के अंतर्गत प्राप्त इस कथा में उन्होंने बताया की - जब कुछ कर्म निष्ठ तपस्वी लोग अनेकानेक जीवन के लक्ष्य रखते थे और कर्म के साथ-साथ ईश्वर से भक्ति-पूर्वक आशीर्वाद भी प्राप्त करते थे तो उन्हें निश्चित रूप से बहुत सिद्धियां प्राप्त हो गयीं थी। तब उनके इष्ट भगवान् शंकर ने उन्हें कुछ विवेक देने हेतु ठानी। कुछ लीला बाद जब वे वविनम्र जिज्ञासु बने तब भगवान् ने उन्हें जो उपदेश दिया वह उपदेश ही यह "उपदेश सार" नामक ग्रन्थ है। कर्म महत्वपूर्ण होता है लेकिन कर्म से सदैव सिमित और संकुचित फल की ही प्राप्ति होती है। अतः नित्य और स्थाई तत्त्व की प्राप्ति हेतु कर्म नहीं बल्कि किसी ज्ञान विशेष का आश्रय लिया जाता है। लेकिन कर्म तब तक नहीं छोड़ना चाहिए जब तक ज्ञान की पात्रता नहीं उत्पन्न हो जाये।


आत्म-बोध के आखिरी, अर्थात 68th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी महाराज हमें आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के तरीके और यात्रा को एक तीर्थ यात्रा से तुलना करते हैं। जैसे एक तीर्थ यात्रा किसी दूरस्थ देवता के दर्शन की तीव्र उत्कंठा से प्रेरित होती है, और जहाँ जाने के लिए हमें अपने समस्त परिवार के लोग, धन-दौलत, घर-बार आदि के प्रति मोह किनारे करना पड़ता है और ऐसी जगह जाते हैं जहाँ जाना भी अत्यंत दुष्कर और खतरों से युक्त होते हैं - फिर भी श्रद्धा और उत्कंठा इतनी तीव्र होती है की हम लोग यह सब कर पाते हैं - उसी तरह से आत्मा-ज्ञान की इच्छा वाले व्यक्ति भी ऐसी ही श्रद्धा, तपस्विता और उत्कंठा से युक्त होते हैं। यहाँ पर कुछ और गन भी चाहिए - वो है कर्मसन्यास। आत्मा के यथार्थ का ज्ञान कर्म का विषय नहीं होता है, अतः समस्त कर्म की मनोवृत्ति को शांत करके आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना होता है। वो आत्मा जो हर जगह, हर समय और हर दिशा में है। अब इन दिशा आदि की कोई चिंता नहीं है। ऐसी आत्मा को जानकर वे ज्ञानवान खुद सर्वव्यापी आदि हो जाते हैं। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 67th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी महाराज हमें आत्म-ज्ञान के उदय को एक सूर्य उदय से तुलना करते हैं। जैसे जब सूर्योदय होता है, तब दुनिया में विराजमान अन्धकार तत्क्षण दूर हो जाता है, और इसके फल-स्वरुप अन्धकार के समस्त कार्य भी दूर हो जाते हैं। उसी प्रकार अपने यथार्थ से अनभिज्ञ हम सब अनेकानेक कल्पनाओं में पड़े हुए हैं। हम लोगों का पूरा संसार केवल कल्पनाओं और धारणाओं पर आधारित होता है। हम लोगों ने न अपने बारे में और न ही दुनियां के बारे में कभी विचार किया है, बस अविचारपूर्वक धारणाएँ उत्पन्न कर रही हैं। अज्ञान की निवृत्ति के साथ ही सब कल्पनाएँ समाप्त होने लगाती हैं और हम अपने आप को सर्वव्यापी और सर्व-धारी ब्रह्म जान लेते हैं। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 66th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें अपने ब्रह्म-ज्ञान हेतु पूरी यात्रा का सारांश बता रहे हैं। वे कहते हैं की याद करो की यह तुम्हारी आध्यात्मिक यात्रा कहाँ से प्रारम्भ हुई थी। हम सब के अंदर एक अपूर्णता थी, असुरक्षा थी, जिसकी निवृत्ति के लिए अनेकानेक आकांक्षाएं थी। इन कामनाओं के कारण अनेकों आसक्तियां, राग और द्वेष उत्पन्न हो जाते हैं। इनके फलस्वरूप हम लोग और पराधीन हो जाते हैं। इस तरह से अनेकों प्रकार के मल जमा हो जाते हैं। इनसे मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति होती है। इसी लक्ष्य को ध्यान रखते हुए हमारे गुरु हमें जीवन के यथार्थ का ज्ञान देते हैं। श्रवण, मनन और निदिध्यासन से ही ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान अग्नि की तरह होता है - जो समस्त अज्ञान और उसके कार्य को भस्मीभूत कर देता है। और एक जीव अपने जीवत्व से मुक्त होकर स्वर्ण-तुल्य साक्षात् ब्रह्म होकर स्थित हो जाता है। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 65th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञानी की दृष्टी के बारे में बताते हैं। जो तत्त्व के अज्ञानी होते हैं, वे दुनियां को सतही दृष्टि से ही देखते हैं इसलिये उतने मात्र को ही सत्य मानते हैं। विविध रूप और उनके नाम, हो हमारे शरीर से किसी भी तरह से जुड़े हुए हैं वे ही अपने समझे जाते हैं, अन्य सब पराये होते हैं। ऐसे लोगों की दृष्टी संकुचित होती है और वे जीवन भर छोटे एवं असुरक्षित रहते हैं। ऐसे लोग ही दुनियां में समस्त हिंसा एवं पीड़ा के कारण होते हैं। इनसे विपरीत ब्रह्म-ज्ञानी वे होते हैं जिनकी ज्ञान-चक्षु खुल गयी है। उन्हें अपनी एवं अन्य सबकी आत्मा दिख रही है - जो की सत-चित स्वरुप है, और यह ही हम हैं। हम ही विविध रूप में अभिव्यक्त हैं। हम पूर्ण हैं, सर्व-व्यापी हैं, हम ही एक, अखंड ब्रह्म हैं। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 64th श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञान में सतत रमने के लिए ज्ञान और प्रेरणा दे रहे हैं। अगर हमारा ज्ञान सदैव एकांत में बैठ के ही संभव होता है तो समझ लीजिये की अभी जगत के मिथ्यात्व की सिद्धि नहीं हुई है। एक बार ज्ञान की स्पष्टता हो जाये उसके बाद एकांत से निकल कर विविधता पूर्ण दुनिया के मध्य में, व्यवहार में अवश्य जाना चाहिए। अज्ञान काल में हम जो कुछ भी देखते और सुनते थे उन सब के बारे में धरना यह थी की ये सब हमसे अलग स्वतंत्र वस्तुएं हैं, लेकिन अब इस नयी दृष्टी के हिसाब से जीना है। अब यह स्पष्टता से देखना है की जो कुछ भी हम इन्द्रियों से ग्रहण कर रहे हैं वो सब माया के छोले में साक्षात् सात-चित-आनंद स्वरुप ब्रह्म ही विराजमान है। जब चलते-फिरते हर जगह ब्रह्म की बुद्धि बनी रहती है तब ही ब्रह्म ज्ञान में निष्ठा हो जाती है। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 63rd श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की अद्वितीयता की सिद्धि का तरीका बताते हैं। ध्यान रहे की जब तक द्वैत रहता है तब तक हमारा छोटापना, अर्थात जीव-भाव बना रहता है - तब तक कितना भी ज्ञान प्राप्त करलो मुक्ति नहीं मिलती है। द्वैत का मतलब होता है की हमारी यह धरना की हमसे पृथक किसी स्वतंत्र वस्तु का अस्तित्व है। यही नहीं वह वस्तु ही हमें पूर्णता, आनंद और सुरक्षा प्रदान करेगी - इसलिए हम सब ऐसी वस्तुओं की कामना करते है, उनसे आसक्त होते है, उनपर आश्रित होते हैं। इसी को अन्तहीन संसार कहते हैं। अब अगर हमें मोक्ष की सिद्धि करनी हो तो हमें मात्र अपने से पृथक समस्त दृश्य वस्तुओं के मिथ्यात्व का निश्चय करना होगा। यह ही इस श्लोक का विषय है। जिसे पूज्य गुरूजी ने अत्यंत सरलता और स्पष्टता से समझाया है। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 62nd श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की प्रकाश स्वरूपता की विलक्षणता दिखा रहे हैं। ब्रह्म की प्रकाशरूपता दिखने के लिए कई बार सूर्य के दृष्टांत का प्रयोग किया जाता है। इस दृष्टांत में प्रकाश-रूपता की तो साम्यता है, लेकिन एक समस्या भी होती है, और वो है सूर्य जैसे एकदेशीय होने की संभावना। समस्त लौकिक प्रकाश एकदेशीय होते हैं, और यह साम्यता हमें इष्ट नहीं है। ब्रह्म सर्वव्यापी हैं अतः इस श्लोक में कहते हैं की ब्रह्म खुद सब चीज़ों के अंदर और बहार व्याप्त रहते हुए सबको प्रकाशित करता है। इसके लिए आचार्य एक दूसरा दृष्टांत देते हैं - जैसे एक लोहे का टुकड़ा लेलें, उसे जब हम अग्नि में डालते हैं तो अग्नि उसके अंदर और बाहर व्याप्त हो जाती है, और उसके अंदर-बाहर रहते हुए उसे प्रकाशित करती है। उसी तरह से सात-चित-आनंद स्वरुप ब्रह्म सबके अंदर और बाहर विराजमान रहते हुए सबको प्रकाशित करता है। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 61st श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। हम लोग सतत कुछ तलाश करते रहते हैं। ऐसे चीज़ की तलाश जो हमें और सुखी एवं करदे। लेकिन विडम्बना यह है, की पूरी दुनियाँ में लोग दुखी हैं, संतप्त हैं। तनाव आज कल की दुनिया की बहुत ही बड़ी समस्या बन गयी है। क्यों? क्यों की हम सबने अनेकों वस्तुएं तो प्राप्त करी हैं लेकिन ये सब नश्वर हैं। आवागमन वाली हैं। अतः जिन-जिन चीज़ों के ऊपर हम आश्रित हुए हैं वे सब एक दिन चली जाती हैं। मूल आवश्यकता एक सत्य और शाश्वत की खोज की होती है। यह ही वेदांत का विषय और प्रसाद होता है। जब भी हम कोई इच्छा करते हैं तो हमारी दृष्टी दृश्य वस्तु पर होती है। शास्त्र बोलते हैं की कहीं जाने की जरूरत नहीं है, उसी जगह और समय नित्य वस्तु वही विराजमान है - उसे जानने मात्र की जरूरत है। उसके लिए ही इस श्लोक में अनेकों लक्षणाएँ देते हैं। वो कौन है जिससे सूर्य-आदि प्रकाशित होते हैं? वो क्या है जिसे सूर्य आदि लौकिक प्रकाश कभी भी प्रकाशित नहीं कर सकते हैं? लेकिन उसके द्वारा दुनिया की सब जड़-चेतन वस्तुएँ प्रकाशित होती हैं। वो ही नित्य है, वो ही टिकाऊ है। वो हमारे अंदर विराजमान चेतन दृष्टा। चेतना ही वो दिव्य प्रकाश है। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 60th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। सत्य की खोज सतत और सर्वत्र होती रहती है। प्रत्येक देश और काल में यह मानव की जिज्ञासा का विषय रहा है। सत्य की खोज करते-करते मनुष्य को अनेकानेक महत्वपूर्ण वस्तुएँ मिल जाती हैं जो की बहुत की काम की भी होती हैं, कई बार हम लोग उन महत्वपूर्ण और उपयोगी वस्तुओं को अपना भगवान् मान लेते हैं। आचार्यश्री यहाँ पर ऐसी अनेकानेक वस्तुओं के बारे में कहते हैं की जो भी दृष्ट है, ग्राह्य है, वो भले महत्वपूर्ण हो, लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए की ये सब कार्यरूपा हैं। ये मूल सत्य नहीं हैं। मूल सत्य, अर्थात ब्रह्म वो है जो की अजन्मा है, किसी भी गुण और रंग आदि से युक्त नहीं होता है। समस्त दृष्ट वस्तुओं का निषेध करो और फिर अधीस्तान को जानो। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 59th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की एक और महिमा बता रहे हैं। संसारी लोगों की दुनिया से आये हम सब की बुद्धि एक बहुत बड़े दोष से युक्त होती है - और वो है की ब्रह्म को भी अन्य किसी विषय की तरह से बाहरी, ग्राह्य एवं कर्म के प्राप्त करने योग्य वस्तु समझना। कर्म की सीमाओं की चर्चा आत्म-बोध के प्रारम्भिक श्लोकों में करी जा चुकी है। अब यहाँ ब्रह्म को व्यवहार की वस्तु की तरह से एकदेशीय समझने की संभावना का निषेध किया जा रहा रहा है। जो वस्तु भी एकदेशीय होती है वो सीमित एवं संकुचित होती है - और ब्रह्म ऐसा नहीं होता है। ब्रह्म व्यवहार की समस्त वस्तुओं, व्यक्तोयों आदि को व्याप्त करता है। वो सबका सत्य होता है, सबको आत्मवान करता है। ब्रह्म ही सबको सत्तू, स्फूर्ति एवं प्रियता प्रदान करता है। आचार्य कहते हैं की जैसे दूध में मक्खन व्याप्त होता है, उसी तरह से जगत के कण-कण में ब्रह्म व्याप्त होता है, अर्थात ब्रह्म-ज्ञान से सब कुछ प्राप्त हो जाता है। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 58th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। अपने मन को भी ब्रह्म में निष्ठ करने के लिए वे चर्चा कर रहे हैं - आनन्द की। हम लोगों की बुद्धि में ब्रह्म-ज्ञान की स्पष्टता होनी चाहिए, और मन में ब्रह्म-ज्ञान हेतु निष्ठा। हम सबका मन, भले वो छोटा व्यक्ति हो या बड़ा, पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, देसी हो या विदेशी, संसारी हो या साधक - सब के सब केवल अपनी-अपनी धारणाओं के अनुरूप आनन्द की प्राप्ति की चेष्टाओं में लगे हुए हैं। और हम सबके प्रयासों से हमें मात्र एक क्षण का आनन्द मिलता है, और उसी में अपने आप को धन्य समझते हैं। यहाँ आचार्य कहते हैं की अपने मन को समझाओ की ' हे मन, जब ज्ञानीजनों के द्वारा बताया गया तुम्हारे लिए आनंद का सागर हो जाने का विकल्प उपलब्ध है, तो तुम अज्ञानियों के पथ पर चलते हुए एक क्षण मात्र के लिए आनंद की एक बून्द क्यों प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे हो। विवेकी बनो, और अपनी सोच ऊंची करो। सीधे ब्रह्म-ज्ञान का संकल्प करो। वो तो अत्यंत निकट भी है - वो तो हमारी आत्मा ही है। बस अपने को यथावत जानने के लिए समर्पित हो जाओ। हमारी बुद्धि ने तो वो जान भी लिया है, अब मात्र अपनी बुद्धि के द्वारा बताये मार्ग पर चलो। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 57th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा, उसके एक प्रसिद्द लक्षण के द्वारा बताते हैं। आचार्य कह रहे हैं, की हम सब ने ब्रह्म के बारे में अनेकों से सुना होगा, लेकिन हमें सदैव शास्त्रोक्त लक्षण को ही प्रधानता देनी चाहिए। ब्रह्म वो है जो की अतत-व्यावृत्ति लक्षण के द्वारा वेदांत शास्त्रों में लक्षित किया जाता है। पू स्वामीजी ने बताया के ब्रह्म को लक्षित करने के तीन प्रधान लक्षण होते हैं, उनमे यह लक्षण निषेध प्रधान होता है। अतः हमें निषेध करने के बाद ही जो अवशिष्ट होता है उसे ब्रह्म की तरह से जानना चाहिए। जो शेष रहता है वो कल्पना का विषय नहीं होना चाहिए। वो अद्वय और अखंड आनन्द होता है। आनंद का रहस्य भी पू स्वामीजी ने बताया। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 56th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की महिमा उसका वास्तविक अर्थ बता रहे हैं। श्लोक का अंतिम पद समान है - की उसको ही ब्रह्म जानो। किसको? जो श्लोक में पूर्ण तत्व है। जो सचिदानन्द स्वरुप है। वो ही तीनों दिशाओं में अपनी माया से विविध रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। तीन दिशाएं मतलब - ऊपर, नीचे और पृथ्वी के ऊपर। जो स्वतः अनंत है, जिसके दृष्टी से कोई द्वैत नहीं होता है। वह ही ब्रह्म है - हे मन अपने समस्त विक्षेप त्यागो और मात्र उसमें अपना ध्यान लगाओ। ब्रह्म के अलावा पूरे ब्रह्माण्ड में और कुछ भी नहीं है। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 55th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञान में पूरे दिल से निष्ठ होकर उसी में रमने के लिए ब्रह्म की कुछ और महिमा बता रहे हैं। पू गुरूजी यहाँ पर बताते हैं की प्रत्येक मनुष्य में एक दिमाग और एक दिल होता है। वेदान्त में पहले दिमाग को प्रबुद्ध किया जाता है और फिर अपनी ही बुद्धि से अपने ही दिल में ज्ञान उतारा जाता है। यह पढ़ाओ सबसे महत्वपूर्ण होता है और इसके बाद ही ज्ञान में निष्ठा होती है, और मुक्ति केवल ज्ञान में निष्ठा के बाद ही होती है। तो यहाँ इस श्लोक में आचार्य कहते हैं की अपनी ही बुद्धि से अपने दिल को बताना चाहिए की हे मन ब्रह्म वो होता है जो सबसे दर्शनीय है, जिसको देखने के बाद फिर कुछ दर्शन योग्य नहीं बचता है। यह वो है जो हो जाने के बाद अन्य कुछ बनाने की संभावना नहीं रहती है और जिसको जानने के बाद अन्य कोई ज्ञेय वस्तु नहीं रहती है। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 54th श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म-ज्ञान में पूरे दिल से निष्ठ होकर उसी में रमने के लिए ब्रह्म की महिमा बता रहे हैं। ये श्लोक उनके लिए भी हो सकते हैं जो अभी पूरे दिल से ब्रह्म-ज्ञान के लिए समर्पित नहीं हुए हैं और अभी भी बहिर्मुख हैं, अर्थात किसी न किसी दुनिया की वस्तुओं से तृप्त होना चाहते हैं। वे कहते हैं की उसे ब्रह्म जानो जिसके 'लाभ' के बाद अन्य कोई लाभ की प्राप्ति शेष नहीं बचती है। जिसके सुख के बाद अन्य कोई सुख की प्राप्ति की संभावना शेष नहीं होती है। और तीसरी बात कहते हैं जिसके ज्ञान के बाद दूसरा कोई ज्ञान का विषय ही नहीं होता है। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 53rd श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें जीवन्मुक्त के अंतिम क्षण हैं - कि वे अंतिम क्षण में ब्रह्म में कैसे लीं होते हैं। पहले तो यह बात स्पष्ट करनी चाहिए की ब्रह्म-ज्ञानी के लिए शरीर के मरने से ब्रह्म में लीन होने का कोई सम्बन्ध नहीं होता है। ईश्वर के अवतार में भी यह सिद्धांत स्पष्ट हो जाता है की भगवान् शरीर के रहते-रहते पूर्ण रूप से मुक्त होते हैं। पिछले श्लोक में भी यह बात स्पष्ट हो गयी थी की ब्रह्म-ज्ञानी उपाधि में स्थित रहते हुए भी उपाधि के धर्मों से अलिप्त होते हैं। तात-तवं-ऐसी महावाक्य के शोधन के बाद वे अपने को मात्र चेतन तत्त्व देखते हैं और ईश्वर के भी तत्त्व को यह ही देखते हैं। अब चेतन चेतन में कैसे लीन होता है। केवल नाम मात्र के लिए ही वे लीन होते हैं। वस्तुतः जहाँ उन्होने अपनी उपाधि के धर्मों का निषेध किया उसी क्षण वे मानो ब्रह्म हो गए। उनका ब्रह्म में लीन होना कुछ ऐसा होता है - जैसे जल, जल में विलीन होता है, जैसे आकाश, आकाश में लीन होता है, जैसे तेज, तेज में विलीन होता है। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 52nd श्लोक में भी भगवान् शंकराचार्यजी हमें जीवन्मुक्त के कुछ और लक्षण देते हैं। इस श्लोक की दो लाइन में वे दो महत्वपूर्ण लक्षण देते हैं। ये दोनों लक्षण ऐसे हैं जिनमे अनेकानेक वेदान्त जिज्ञासु फसें रहते हैं और इनसे ऊपर नहीं उठ पाते हैं, और इनके चलते अपने गुरु से प्राप्त दिव्य ज्ञान को चौपट कर देते हैं। अर्थात ये दो ऐसे महत्वपूर्ण बिंदु होते हैं की हम ज्ञान प्राप्ति के बाद भी संसारी बने रहते हैं। पहली लाइन में आचार्य कहते हैं तत्त्व-ज्ञानी उपाधि में रहते हुए भी उपाधि के समस्त धर्म से अछूते रहते हैं - जैसे आकाश। दूसरी लाइन में कहते हैं की वे सर्ववित हैं लेकिन ज्ञान के प्रदर्शन की कोई प्रेरणा नहीं होती है। उनके लिए ज्ञान मूल रूप से उनकी मुक्ति का साधन था - न की अज्ञानी लोगों से ज्ञानी का प्रमाण पात्र की प्राप्ति का माध्यम। वे तो एक शीतल पवन जैसे होते हैं जो की असंग और अलिप्त रहते हुए प्रवाहित होती रहती है। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 51st श्लोक में आचार्यश्री हमें जीवन्मुक्त के कुछ और लक्षण देते हैं। वे कहते हैं की जीवन्मुक्त की जीवन की यात्रा में सर्वप्रथम यह जाना की जो भी बाहरी - अर्थात इन्द्रियग्राह्य वस्तुएँ होती हैं वे सब अनित्य होती हैं। इनके ऊपर निर्भर होना इनसे आसक्ति हो जाना ही समस्त दुःख का मूल होता है। इसलिए वेदान्त के अधिकारी में वैराग्य होना चाहिए। भगवान् शंकराचार्य भी आग्रह पूर्वक कहते हैं की बिना संन्यास के ब्रह्म-विद्या प्राप्त नहीं हो सकती है। जब हम सभी बाह्य चीज़ों से आसक्ति दूर कर देते हैं, तभी आत्म-ज्ञान का मार्ग प्रशस्त होता है। वो आत्मा को नित्य जान जाता है। वो ही सत्य है, शास्वत है, आनन्दस्वरूप है - वो ही हम हैं। ऐसा व्यक्ति ही वास्तविक रूप से स्वस्थ है - जैसे एक घड़े के अंदर दीपक स्थित है और खुद भी प्रकाशित हो रहा है और समस्त बाहरी वस्तुओं को भी प्रकाशित कर रहा है। इस पाठ के प्रश्न : __ __


आत्म-बोध के 50th श्लोक में आचार्यश्री हमें जीवन्मुक्त के जीवन की यात्रा रामायण के दृष्टांत से समझते हैं। रामायण की जो मूल शिक्षा है वो इन जीवन्मुक्त ने समझ ली एवं रामजी ने अपने जीवन से जो आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान करी है वो भी प्राप्त कर ली है। रामायण में प्रत्येक मनुष्य के जीवन की आत्मा-कथा बताई गयी है। जहाँ पहले उसके मन की शांति गायब हो जाती है और उसे एक विशाल समुद्र के परे छुपा के रखा गया है, और उसकी अनेकों राक्षस लोग रक्षा करते हैं। ये सागर हमारा मोह है और जो राक्षस हमारी शांति की रक्षा करते हैं वो - राग और द्वेष हैं। अतः जो व्यक्ति पहले गुरु मुख से शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करके अपना मोह दूर करते हैं और अपने राग और द्वेष को दूर कर देते हैं, वे ही अपने सीता रुपी शांति से एक होकर शांति से अयोध्या में विराजते हैं। यह रामायण की भषा में एक जीवन्मुक्त की यात्रा होती है। इस पाठ के प्रश्न : __ __